सन १९३० में, जब तत्कालीन सरकार ने भारत के बच्चों के लिए पहली बार बोर्ड परीक्षाओं का ख़ाका खींचा था तब पढाई से ताल्लुक रखने वाले लोगों को कहाँ ही पता था कि आने वाले वक़्त में एक दिन ये परीक्षाएं बच्चों के जीवन का सबसे अहम पड़ाव साबित होंगी।
एक दौर था जब ये बोर्ड परीक्षाएं बच्चों के लिए, उनके अभिवावकों के लिए किसी ऐसे त्यौहार की तरह होती थीं जिसे जीवन में एक ही बार मनाया जाना होता है। भारत में वसंत के आगमन के साथ जब बाकी दुनिया नव पल्लवों के स्वागत की तैयारी शुरू कर रही होती थी, उसी के साथ भारत के बच्चों के मन में बोर्ड परीक्षाओं का जिक्र रोमांच भर रहा होता था।
वैश्वीकरण का ताज़ा ताज़ा स्वाद चखे भारत में जाती हुई सर्दियों की अलसाई दुपहरियों में छत पर औंधे पड़े बच्चों को रेडियो सुनते हुए भी पढ़ने की प्रेरणा देना इन्हीं बोर्ड परीक्षाओं के बस की बात हुआ करती थी।
एक आम हिन्दुस्तानी बच्चा एक क्लास पहले ही लोगों से ‘अगले साल बोर्ड है, तब पता लगेगा’ सुन सुनकर मानसिक रूप से खुद को इस बात के लिए तैयार कर चुका होता था कि अगली परीक्षा जरा ज्यादा पसीना मांगेगी। आज जिसे दुनिया तनाव समझती है, उसे हम मेहनत समझते थे। उलझनें होती थीं, मगर इतनी नहीं कि हम खुद को बीमार कर लें… एग्जाम की वजह से डिप्रेशन महसूस करने जैसा तो किसी ने सुना तक नहीं था।
बोर्ड परीक्षाएं हमारे लिए चुनौती नहीं, अवसर होता था जब कुछ दिनों तक हम स्कूल की यूनिफार्म पहनने से आज़ादी पाए होते थे। परीक्षा के पहले दिन के लिए नए कपड़े, नई रिस्टवाच, नई कलमें पाकर हमारा दिल बल्लियों उछलता था। माँ नित नए पकवान बनाती थीं और पिता गर्मी की छुट्टियों में नये शहर घुमाने और ढेरों कॉमिक्स दिलाने का वादा करते थे।
वैसे तो क्लास के पहले दिन से ही कोई ना कोई ‘इस बार बोर्ड है’ याद दिलाकर लगातार माहौल को गरम बनाये रखता था मगर असली तैयारी शुरू होती थी प्रैक्टिकल परीक्षाओं की तारीखों की घोषणा के बाद।
मशीन की रफ़्तार से तैयार होती प्रैक्टिकल फाइल्स, क्लास के नोट्स को हाईलाइटर से रंगते जाना, संभावित प्रश्नों के लिए गुरुजनों के घरों का चक्कर लगाना, गाइड और कुंजियों के मोस्ट इम्पोर्टेन्ट सवालों में से भी छंटाई करना, हाथों में किताब थामकर छतों पर चक्कर मारते हुए जोर जोर से पढ़ना… ये सब भारतीय घरों के आम दृश्य हुआ करते थे।
एग्जाम सेण्टर की घोषणा होते ही एक बार उस स्कूल का जायजा लेने के साथ साथ समय बचाने के लिए स्कूल के निकटतर स्थित किसी परिचित के घर रहने, खाने, पढ़ने की व्यवस्था होती थी। एक सामान्य बच्चे के लिए यही वो समय होता था जब उसके अन्दर यह एहसास गहराता था कि जीवन में स्वयं की ज़िम्मेदारी बरतने की घड़ी शुरू हो रही है।
मित्रों के साथ लालटेनों और इमरजेंसी लाईटों के सहारे मच्छरमार अगरबत्ती के धुएं के बीच देर रात तक होती ग्रुप स्टडी के सुख के आगे वीकएंड पार्टियों का सुख भी हेच है।
‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय’ जैसा अद्भुत जीवन सूत्र इन्हीं बोर्ड परीक्षाओं में मिलता था जिसमें बीत गए पेपर की अच्छी बुरी कैसी भी परफॉरमेंस को भुलाकर तुरंत ही अगले पेपर की तैयारी शुरू हो जाती थी। सारे देवताओं को दायें रखने की कोशिश करते हुए किसी तरह परीक्षा का वो माह बिताने के बाद रिजल्ट के दिन का इंतजार शुरू होता था। आज स्मार्टफ़ोन और इन्टरनेट की बदौलत चुटकियों में जंगल की आग की तरह फ़ैल जाने वाला एग्जाम रिजल्ट तब तक तत्काल मिलना एक सपना भर था।
उन दिनों रिजल्ट एक ख़ास अखबार के रूप में छपता था जिसे प्रकाशन के दिन हासिल कर पाना टेढ़ी खीर हुआ करती थी। कई किलोमीटर दूर जाकर मिलने वाले इस अखबार में परसेंटेज और परसेंटाइल की जगह रोल नंबर के आगे सिर्फ डिवीज़न का जिक्र होता था। कुछ कस्बाई पीसीओ वाले शहर के किसी साइबर कैफ़े वाले से जुगाड़ बैठाकर, फ़ोन से रोल नंबर नोट कराकर, रिजल्ट पता करके इच्छुक को बताने का जिम्मा लेते थे जिसमें कुल जमा इतना सा अतिरिक्त फायदा होता था कि बच्चे को डिवीज़न के साथ कुल प्राप्तांक भी पता चल जाते थे… विषयवार नंबर बताने की उसे उस दिन फुर्सत ही कहाँ होती थी!
रिजल्ट बताने के एवज में फेल वालों से बीस और पास होने वालों से पचास रुपये की रेट लिस्ट बताती थी कि पास भी हो जाना तब इतना आसान भी नहीं था। सफलता ज्यादा कीमत मांगती है, लेकिन असफलता भी मुफ्त में नहीं मिलती।
आज जब नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में स्टूडेंट्स द्वारा होनी वाली आत्महत्याओं के दशक दर दशक बढ़ते हुए आंकडें दिखते हैं तो बरबस ही हमारे समाज और एजुकेशनल सिस्टम के पुनरावलोकन की ज़रूरत महसूस होती है। निश्चय ही परीक्षाएं ही इस बात का एकलौता कारण नहीं हैं, लेकिन परीक्षाओं के आस पास ही इन दुर्घटनाओं में होने वाली वृद्धि ये इंगित करती है कि हमें इसे और अधिक गंभीरता से लेना चाहिए।
इस रेस को दम भर दौड़कर जीत लेने की आपा धापी में हमें एक क्षण ठहर कर अब यह सोचना होगा कि आखिर स्कूली परीक्षाओं का उद्देश्य क्या होता है?
क्या सारी स्कूली परीक्षाओं का उद्देश्य एक समर्थ व्यक्ति बनने और बेहतर जीवनशैली को पाने के लिए एक प्लेटफार्म के रूप में उपयोगी सिद्ध होना नहीं है!
हम कितनी भी परीक्षाएं पास कर लें, इंसान होने के नाते हमें प्रजाति के रूप में एक बेहतर जीवनशैली को पाने के साथ साथ उसे समग्र रूप में उपभोग करने की कला सीखना भी आवश्यक है।
अपने बच्चों के जीवन से जुड़े सपनों के बड़े होते जाने के बीच हमें यह भी देखना होगा कि कहीं उनका बोझ असहनीय सीमा तक ना बढ़ जाये।
बोर्ड परीक्षा जीवन का एक पड़ाव है, बहुत महत्वपूर्ण पड़ाव है लेकिन पड़ाव के परिणामों को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य, अंतिम सत्य मान बैठने की ग़लतफ़हमी को पीछे छोड़कर यह जानना अधिक श्रेयस्कर है कि, जीवन सतत संघर्षों की अनवरत श्रृंखला है जिनसे जूझकर लड़ते भिड़ते, गिरते उठते, सीखते, आगे बढ़ते रहना ही जीवन की सार्थकता को परिभाषित करता है।
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लेखक – गौरव कुमार निगम (संस्थापक – निगम एकेडमी)
लेख भास्कर समूह की पत्रिका अहा! ज़िन्दगी के अहा! विशेष के रूप में मार्च, २०२४ के अंक में प्रकाशित
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इमेज साभार – अहा! ज़िन्दगी पत्रिका